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प्रवृत्ति निरंतरता

प्रवृत्ति निरंतरता
लेखक: गिरीश्वर मिश्र
दुनिया में संभवतः भारत ही अकेला ऐसा देश है, जो अपनी अस्मिता को लेकर ऊहापोह में है और कई अंतर्विरोधों का शिकार हो रहा है। हजारों साल पुरानी एक समृद्ध, स्थापित और सुदीर्घ परंपरा होने के बावजूद वह अपने स्वरूप या पहचान को लेकर सशंकित और भ्रमित है। नए किस्म के अनेक आधुनिक बुद्धिजीवी पूरी भारतीय परंपरा को संकीर्ण और अप्रासंगिक घोषित करने में लगे हैं। मानवीय रचना होने के कारण हमें सभ्यता और संस्कृति के पाठ की छूट तो मिल जाती है, पर यह पाठ यदि पूर्वाग्रहग्रस्त, आयातित और आरोपित हो तो पीढ़ी दर पीढ़ी इसके बड़े दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं।

Continuation Meaning In Hindi

सरल उदाहरणों और परिभाषाओं के साथ Continuation का वास्तविक अर्थ जानें।.

विस्तार

संज्ञा

Continuation

kəntɪnjʊˈeɪʃ(ə)n

परिभाषाएं

Definitions

1 . समय पर किसी चीज को ले जाने की क्रिया या भाव।

1 . the action of carrying something on over time or the state of being carried on.

उदाहरण

Examples

1 . स्थायी शांति पर चर्चा का सिलसिला जारी

1 . the continuation of discussions about a permanent peace

2 . निरंतरता कार्यक्रम pslv।

2 . pslv continuation programme.

3 . सभी एसोसिएट सचिव पदों और उससे ऊपर की अवधारण।

3 . continuation of all posts of the level of joint secretary and above.

4 . कल इस लेख की निरंतरता प्रकाशित की जाएगी।

4 . the continuation of this article will be published tomorrow.

5 . 1.3337 के ब्रेकआउट के बाद और तेजी की उम्मीद है।

5 . the continuation of the upward movement is expected after the breakdown of 1.3337.

6 . प्रवृत्ति निरंतरता संकेतक का नीला थरथरानवाला लाल थरथरानवाला के ऊपर से पार होना चाहिए।

6 . blue oscillator of the trend continuation indicator should cross above the red oscillator.

7 . "कानून" खंड से जारी है।

7 . continuation of section“laws”.

8 . ब्लॉक मिनट 29.01 और आगे नहीं देख सकते।

8 . it blocks the 29.01 minutes and can not see further continuation .

9 . मुझे अगली कड़ी देखना अच्छा लगेगा!

9 . i would love to see the continuation !

10 . क्योंकि इसने मंदिर में काम जारी रखने की अनुमति दी।

10 . for he permitted continuation of the work in the temple.

11 . बैटल एंजेल 2- सीक्वल।

11 . battle angel 2- continuation .

12 . इस योगदान की निरंतरता।

12 . continuation of this contribution.

13 . जेल से भागने की साहसिक खोज की अगली कड़ी।

13 . continuation of the adventure quest escape from prison.

14 . इमामत, जो आगे है।

14 . imamate, which is the continuation .

15 . फ्लेमिंग शांति चाहते थे और नहीं चाहते थे कि युद्ध जारी रहे।

15 . the flemings wanted peace and did not want a continuation of the war.

16 . हालांकि, फिल्मों में ऐसा नहीं लगता है, और अगली कड़ी के लेखकों ने उस वास्तविकता को भी नजरअंदाज कर दिया है।

16 . he doesn't look it in the movies though, and the continuation writers also seem to have ignored this reality.

विलोम शब्द

Antonyms

समानार्थी शब्द

Synonyms

Similar Words

Continuation meaning in Hindi - Learn actual meaning of Continuation with simple examples & definitions. Also you will learn Antonyms , synonyms & best example sentences. This dictionary also provide you 10 languages so you can find meaning of Continuation in Hindi, Tamil , Telugu , Bengali , Kannada , Marathi , Malayalam , Gujarati , Punjabi , Urdu.

भारत को भारत के ढंग से ही समझ सकते हैं

लेखक: गिरीश्वर मिश्र
दुनिया में संभवतः भारत ही अकेला ऐसा देश है, जो अपनी अस्मिता को लेकर ऊहापोह में है और कई अंतर्विरोधों का शिकार हो रहा है। हजारों साल पुरानी एक समृद्ध, स्थापित और सुदीर्घ परंपरा होने के बावजूद वह अपने स्वरूप या पहचान को लेकर सशंकित और भ्रमित है। नए किस्म के अनेक आधुनिक बुद्धिजीवी पूरी भारतीय परंपरा को संकीर्ण और अप्रासंगिक घोषित करने में लगे हैं। मानवीय रचना होने के कारण हमें सभ्यता और संस्कृति के पाठ की छूट तो मिल जाती है, पर यह पाठ यदि पूर्वाग्रहग्रस्त, आयातित और आरोपित हो तो पीढ़ी दर पीढ़ी इसके बड़े दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं।

देवताओं की पसंद
आज हमें खुद को परिभाषित करना और पहचानना कष्टदायी हो रहा है। राष्ट्र राज्य की आधुनिक अवधारणा के अवतरण से बहुत पहले से भारत एक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित था और इस रूप में उसकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान थी। यहां भूमि को ‘माता’ और स्वयं को ‘पृथ्वी की संतान’ कहा गया। इतिहास, पुराण आदि में तो यहां तक कहा गया कि यहां जन्म लेने को देवता भी तरसते हैं। इसकी प्राकृतिक सुषमा, समृद्धि और भावनात्मक एकता की बात का पता अनेक विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरणों से चलता है।

भारत की सहज प्रवृत्ति सह अस्तित्व को स्वीकार कर और विविधताओं को स्वाभाविक मान कर जीने की रही है। यहां के दार्शनिक संप्रदायों की विविधता विलक्षण है। यहां किसी एक दृष्टि की प्रधानता नहीं है। एक आंतरिक शक्ति के विविधवर्णी प्रकटन को स्वाभाविक मानने की परंपरा वैदिक काल से ही प्रचलित है। एक से बहुल होना स्वीकार्य है, एक को कई कई ढंग से देखना भी सहज है और सभी दिशाओं से आ रहे विचार स्वागतयोग्य हैं। बहुल की भलाई ही सर्वोपरि है।

यह भी आश्चर्यजनक है कि गांवों में हमारी परंपरा किसी न किसी रूप में सुरक्षित है। गांव में ‘अतिथि देवो भवः’ की गूंज अब भी सुनी जा सकती है। देवी देवता और रीति रिवाज की सांस्कृतिक निरंतरता आज भी कायम है। उन ग्रामवासियों के लिए अपनी विरासत को जानना, पहचानना और अपनाना सहज और स्वाभाविक है क्योंकि वे उसे किसी न किसी रूप में जी रहे हैं। वे प्रकृति पर कब्जा करने की जगह परिस्थिति के साथ जीना जानते हैं। गर्मी, सर्दी, बरसात के मौसम के हिसाब से वे जीने की कोशिश करते हैं। वहां निरंतरता दिखती है और लगता है कि कुछ है जिसे ‘सनातन’ कहा जाता है। पर नगर और महानगर में रहने वाले भारतवासी जनों के लिए यह सब वर्तमान से कटा हुआ अजूबा, अर्थहीन या निष्प्रयोजन सी कवायद होता है क्योंकि वे स्वयं इसका ककहरा भी नहीं जानते। उनके लिए वह ज़्यादा से ज़्यादा कौतूहल की वस्तु है जो लोक-संस्कृति के अंश के रूप में घर सजाने या फिर संग्रहालय में रखे जाने योग्य होता है।

उल्लेखनीय है कि भारत की भौतिक समृद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान और कौशल की संपदा ने विदेशी राजसत्ताओं को सतत आकर्षित किया। शक, हूण, कुषाण, ग्रीक, मुस्लिम, फ़्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज आदि ने देश पर आक्रमण किया। लगभग हज़ार साल तक भारत बाहरी आक्रमण झेलता रहा। उनके आक्रमणों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिणाम हुए। सांस्कृतिक संपर्क और आवाजाही से कई तरह के परिवर्तन आए। पराजित मन के साथ अपनी संस्कृति को जीवित रखना मुश्किल होता है।

अंग्रेजी राज्य के प्रभाव ने बड़े निर्मम तरीके से न केवल यहां के आर्थिक संसाधनों का दोहन किया बल्कि घातक ढंग से भारतवासियों के मन में सांस्कृतिक अवमूल्यन का भाव भरा। इस हेतु अपने ही ज्ञान के प्रति वितृष्णा पैदा की, अंग्रेजी शिक्षा को रोप कर उससे दूरी बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया और उसे आधुनिक बनाने के लिए जरूरी और जायज ठहराया। इसका कुपरिणाम यह हुआ कि हम अपनी ही संस्कृति के प्रति उदासीन होते गए और सांस्कृतिक निरक्षरता बढ़ती गई। आज स्थिति यह है कि मूल संस्कृत पाठ को पढ़कर समझ सकने वाले बहुत कम हो गए हैं। गलतियों के बावजूद उनके अंग्रेज़ी अनुवाद ही प्रामाणिक माने जाते हैं और उन्हीं के माध्यम से लोग मूल तक पहुंच पाते हैं।

भारत की नई पीढ़ी यहां की देशज विश्व दृष्टि और ज्ञान-परंपरा को अछूत मानती जा रही है। यहां पर इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि हमने बिना जांचे भारत और उसके समाज को समझने को लेकर अंग्रेजी हुक्मरानों द्वारा किए गए षडयंत्र से उपजे ज्ञान के सांचे को आंख मूंदकर अपना लिया और उसी तरह अपनी सोच को भी प्रवृत्ति निरंतरता ढाल लिया। स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध की परंपरा बिना किसी प्रश्न के ज्यादातर उसी अप्रासंगिक दृष्टि को ही लेकर आगे बढ़ती रही। परिणाम यह हुआ कि अनुकरण की प्रवृत्ति प्रमुख होती गई। प्राप्त ज्ञान मात्र पुस्तकीय ही बना रहा। उसकी प्रामाणिकता और पुष्टि भी वास्तविक परिवेश और पारिस्थितिकी के लिए उपयुक्तता के बदले तर्काश्रित ही बनी रही। शिक्षा ही आज समाज के मानस का निर्माण करती है। यदि औपचारिक शिक्षा पर गौर करें तो यही प्रतीत होता है कि सृजनात्मक दृष्टि से हमारे शैक्षिक प्रयास ज्यादा कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।

शिक्षा और संस्कृति
सूचना और संचार क्रांति के हस्तक्षेप से शैक्षिक परिस्थिति में नए प्रवृत्ति निरंतरता बदलाव आ रहे हैं। यह मीडिया के साथ जुड़कर एक नए किस्म के शैक्षिक समाजीकरण को जन्म दे रहा है। इसके द्वारा सूचनाओं के व्यापक संसार के साथ हमारी निकटता बढ़ रही है। इस अवसर का सार्थक उपयोग करते हुए यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा में भारतीय संस्कृति और चिंतन की समृद्ध दृष्टि को भी जगह दी जाय। आखिर भारत भी इसका हकदार है कि उसे उसके ढंग से समझा जाए।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)

REET PSYCHOLOGY QUIZ 22

प्रश्न -1 बालक के मूल शक्तियों का कारण उसका वंशानुक्रम होता है ,,यह कथन है
(A) गोडार्ड
(B) डगडेल
(C) थॉर्नडाइक✔
(D) स्किनर
*प्रश्न -2 फ्रायड ने लड़को के मातृ प्रेम भाव को नाम दिया है I
(A) सामाजिक भावना ग्रन्थि
(B) सद्भावना ग्रन्थि
(C) इलेक्ट्रा भावना ग्रन्थि
(D) ओडीपस भावना ग्रन्थि✔

*प्रश्न -3″ पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा ज्यादा बुद्धिमान होते है” यह कथन _
(A) सही हो सकता है
(B) लैंगिक पूर्वोग्रह को प्रदर्शित करता है✔
(C) बुद्धि के भिन्न पक्षों के लिए सही है
(D) सही है

*प्रश्न -4 किस नियम के अनुसार बालक अपने माता पिता के उन गुणों को ग्रहण करता है जो उन्होंने अपने पूर्वजों से प्राप्त किए हैं
(A) बीजकोष की निरंतरता का नियम✔
(B) जीव सांख्यिकीय नियम
(C) परावर्तन का नियम
(D) समानता का नियम

*प्रश्न -5 निरुद्देश्य घूमने की प्रवृति किस अवस्था में पाई जाती है?
(A) प्रौढ़ावस्था
(B) किशोरावस्था
(C) बाल्यावस्था✔
(D) शैशवावस्था

*प्रश्न -6 बाल्यावस्था को छद्‌म (मिथ्या) परिपक्वता का काल किसने कहा ?
(A) रॉस✔
(B) स्ट्रेंग ने
(C) थॉमस ने
(D) कैटल ने

*प्रश्न -7 लड़कों में विकसित होने वाली पितृ विरोधी ग्रंथि है
(A) ऑडीपस✔
(B) एलक्ट्रा
(C) थाइराइड
(D) उपर्युक्त सभी

*प्रश्न -8 “किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है” कथन है-
(A) स्किनर का
(B) वुडवर्थ का
(C) वेलेन्टाइन✔
(D) हरबर्ट का

*प्रश्न -9 “व्यवहार के अर्जन में क्रमशः प्रगति की प्रक्रिया को सीखना करते हैं ” यह कथन है-
(A) स्किनर का✔
(B) गेट्स का
(C) कॉलविन का
(D) वॉटसन का

*प्रश्न -10 बालक में तर्क और समस्या समाधान की शक्ति का विकास होता है ?
(A) 11वें वर्ष में
(B) 12वें वर्ष में✔
(C) 9वें वर्ष में
(D)10वें वर्ष में

*प्रश्न -11 प्रतिबिंब अवधारणा ,प्रतीक,एवं संकेत,भाषा ,शारीरिक क्रिया और मानसिक क्रिया अंतर्निहित है?
(A) अनुकूलन
(B) प्रेरक पेशी विकास
(C) समस्या समाधान
(D) विचारात्मक प्रक्रिया✔

*प्रश्न -12 बच्चों में नैतिकता की स्थापना के लिए सर्वोत्तम मार्ग है ?
(A) उन्हें धार्मिक पुस्तकें पढ़ना
(B) शिक्षक का आदर्श रूप में व्यवहार करना ✔
(C) उनका मूल्य शिक्षा पर मूल्यांकन करना
(D) उन्हें प्रातः कालीन सभा में उपदेश देना

*प्रश्न -13″ विकास कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है “यह विचार किससे संबंधित है?
(A) एकीकरण का सिद्धांत
(B) अंतः क्रिया का सिद्धांत
(C) अंत:संबंध का सिद्धांत
(D) निरंतरता का सिद्धांत✔

*प्रश्न -14संज्ञानात्मक विकास में वंशक्रम निर्धारित करता है-
(A) मस्तिष्क जैसी शारीरिक संरचना में मूलभूत स्वभाव को✔
(B) शारीरिक संरचना के विकास को
(C)सहज प्रतिवर्ती क्रियाओं के अस्तित्व को
(D) इनमें से सभी

*प्रश्न -15 नवजात शिशु स्वयम को किस प्रकार के खेल में सम्मिलित करते हैं –
(A) सहकारी खेल
(B) समांतर खेल समानांतर खेल
(C) साहचर्य खेल
(D) इंद्रिय व गत्यात्मक खेल✔

नियंत्रण करने की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का पर्व है विजयादशमी

विजयादशमी, शक्ति का उत्सव। शक्ति भी कैसी, वह जो अन्याय का विरोध करे, जो कमजोर को सहारा दे। वह क्रूर न हो, बल्कि करुणा का सागर बने। पुरुषार्थ को आधार बनाकर मानवता का कल्याण करे ऐसी शक्ति। दरअसल शक्ति को सही दिशा देना ही विजयादशमी का पर्व है, उत्सव है और इसी में मंगल है। दरअसल शक्ति होना, सृष्टि की शुरुआत के साथ है। यह ऊर्जा के रूप में है मिली एक भौतिक इकाई है। यह वही प्रेरणा है जो बिगबैंग के जरिए ग्रहों-नक्षत्रों के बनने की वजह है। इसका दूसरा स्वरूप नियंत्रण का है। आदि काल से मनुष्य नियंत्रण की प्रवृत्ति रखता आया है। यही नियति किसी को देव बना देती है तो किसी को दानव। नियंत्रण की प्रवृत्ति को नियंत्रित कर लिया जाए तो व्यक्ति राम है, और इस प्रवृत्ति को खुला छोड़ कर खुद इसके अधीन हो जाना रावण होना है। राम-रावण युद्ध इन्हीं दो प्रवृत्तियों का युद्ध है। रावण का वध नियंत्रण से बाहर हो रही नियंत्रण की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का प्रतीक है। राम इस प्रवृत्ति के आधार हैं और विजयदशमी इसी आधार का पर्व है।
हर किसी में अच्छाई-बुराई होती है। इनका अनुपात अलग-अलग हो सकता है। भारत के सामान्य व्यक्ति की प्रश्नाकुलता के स्वर विजयादशमी में हैं जो हमारी धमनी और शिराओं में वास करते हैं। हमारी संकल्प-भावना के मूर्तिमंत रूप विजयादशमी में हैं। जब अन्याय हो तो उससे संघर्ष करने का भाव विजयादशमी में मिलता है। सामान्य को इकट्ठा करके संघर्ष करने की कला राम के पास है। सत्ता से दूर रहकर भी लोगों को अपना बना लेना कोई उनसे सीखे। इसे निभाना वह बखूबी जानते हैं। वह लंका पर राज नहीं करते। उनके विपरीत रावण एक ऐसा प्रतिनायक है, जो विद्वान है और प्रकृति पर ही नियंत्रण करने चला है। रावण से सीखने के लिए लक्ष्मण रावण की मृत्यु की घड़ी में सादर उसके पास जाते हैं। रावण विराट शक्ति और प्रतिभा का धनी था। उसकी शक्ति और प्रतिभा यदि स्त्री के आहरण में न खपती और मन विस्तार लिए होता तो शायद राम-रावण संघर्ष की दिशा कुछ और होती। खैर राम-रावण का एक अपराजेय समर आज भी जारी है। हमारे भीतर के प्रकाश और अंधकार का संघर्ष कभी खत्म ही नहीं होता। जैसे अंधकार में भी विशिष्ट क्षमताएं होती हैं वैसे ही रावण में भी बेहतरी कई बार देख सकते हैं। भारतीय मन किसी में केवल नकारात्मकता ही नहीं देखता, वह सकारात्मकता भी खोजता है या कहें कि खोज लेता है। शंबूक और सीता-निष्कासन के प्रसंग को भी लोक-समाज अपने नजरिये से देखता है।
महत्व यदि सत्ता, संपत्ति, कृत्रिम लोकप्रियता, धाक आदि के सहारे प्राप्त हुआ तो उसके कम हो जाने की संभावना अत्यधिक होती है। इसके उलट यदि अच्छाई मूल गुण-संपत्ति से बनी एवं बुनी हुई हो तो उसमें धुंधलापन आने की अधिक आशंका नहीं होती। राम का जो अर्जित गुण है, उसे मौलिक सृजनशीलता कह सकते हैं। आधुनिकतावाद ने औद्योगिक विकास, बुद्धिवाद एवं विज्ञान के वर्चस्व को प्रगति एवं सभ्यता के साथ जोड़ दिया था, जबकि उत्तर आधुनिकतावाद ने संस्कृति को एक के बजाय अनेक और केंद्रित के बजाय विकेंद्रित करार दिया। अभी देखें तो नए सिरे से अब संस्कृति विमर्श का मुद्दा बन रही है, जिसमें जड़ों की तलाश, अतीत एवं परंपरा के नए अवगाहन महत्वपूर्ण बनते जा रहे हैं। राम को भी नए सिरे से आविष्कृत करने के लिए उनको गहराई से समझना होगा जो ‘अन्य’ के रूप में रहे हैं और कई बार साहित्य एवं इतिहास से बाहर के माने जाते रहे हैं, जैसे-दस्यु, राक्षस एवं आदिजन। उनके साथ ही सीता, उर्मिला, मांडवी आदि को भी नए सिरे से देखना होगा। इतनी सारी अर्थ छवियों, दृष्टियों की संकुलता एवं बहुवचनात्मकता से सुसज्जित कथा हजारों साल से लोक-व्यवहार, आचार, स्मृति में रंगमयी ङिालमिलाहट से भारतीय समाज को रचती रही है। इसके अंदर ऐसी निरंतरता है जो जीवन का उत्सव बन जाए।
भारतीय संस्कृति में हमेशा से एक मध्यम या संतुलित सोच की मान्यता रही है। यहां अतिवाद को स्थान नहीं है। इसीलिए प्रतिपदा से दशमी तक के लिए ऐसी ऋतु चयनित है, जहां न शीत है न ग्रीष्म। जहां आंतरिक और बाहरी स्वच्छता पर बल है। यह रामकथा एक नहीं, सैकड़ों रूपों में है। रामायण में केवल एक पाठ नहीं, बल्कि सैकड़ों पाठ हैं। एक पाठ राम का तो अन्य पाठ सीता का। एक पाठ लक्ष्मण का तो अन्य पाठ उर्मिला का। राम, लक्ष्मण, भरत के अंतरसंबंध भी एक भिन्न कोटि का पाठ बनाते हैं।
रामायण, रामचरितमानस, अध्यात्म रामायण, साकेत, रामचंद्रिका, आनंद रामायण, बौद्ध रामायण आदि अनेक रामायण हैं। इन सभी में अलग-अलग दृष्टियां हैं। दृष्टियों की बहुलता वाली ऐसी विजयादशमी का विजय-पाठ अंतत: यदि सामान्य व्यक्ति की प्रेरक स्मृति की सुगंध से नहीं जुड़ा होता तो वह अर्थमय नहीं होता और हमारे भीतर-बाहर के चौक-चौबारे में मेला न बन जाता। एक ऐसा मेला, जहां हम स्वयं से मिलते हैं और लोक से भी। नायक से मिलते हैं और प्रतिनायक से भी। समय से मिलते हैं और भविष्य से भी। काव्य से मिलते हैं और महाकाव्य से भी। अंत से मिलते हैं और अनंत से भी। भाषा से मिलते हैं और भाषा से परे भी। हद से मिलते हैं और बेहद से भी।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

भारत को भारत के ढंग से ही समझ सकते हैं

लेखक: गिरीश्वर मिश्र
दुनिया में संभवतः भारत ही अकेला ऐसा देश है, जो अपनी अस्मिता को प्रवृत्ति निरंतरता लेकर ऊहापोह में है और कई अंतर्विरोधों का शिकार हो रहा है। हजारों साल पुरानी एक समृद्ध, स्थापित और सुदीर्घ परंपरा होने के बावजूद वह अपने स्वरूप या पहचान को लेकर सशंकित और भ्रमित है। नए किस्म के अनेक आधुनिक बुद्धिजीवी पूरी भारतीय परंपरा को संकीर्ण और अप्रासंगिक घोषित करने में लगे हैं। मानवीय रचना होने के कारण हमें सभ्यता और संस्कृति के पाठ की छूट तो मिल जाती है, पर यह पाठ यदि पूर्वाग्रहग्रस्त, आयातित और आरोपित हो तो पीढ़ी दर पीढ़ी इसके बड़े दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं।

देवताओं की पसंद
आज हमें खुद को परिभाषित करना और पहचानना कष्टदायी हो रहा है। राष्ट्र राज्य की आधुनिक अवधारणा के अवतरण से बहुत पहले से भारत एक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित था और इस रूप में उसकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान थी। यहां भूमि को ‘माता’ और स्वयं को ‘पृथ्वी की संतान’ कहा गया। इतिहास, पुराण आदि में तो यहां तक कहा गया कि यहां जन्म लेने को देवता भी तरसते हैं। इसकी प्राकृतिक सुषमा, समृद्धि और भावनात्मक एकता की बात का पता अनेक विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरणों से चलता है।

भारत की सहज प्रवृत्ति सह अस्तित्व को स्वीकार कर और विविधताओं को स्वाभाविक मान कर जीने की रही है। यहां के दार्शनिक संप्रदायों की विविधता विलक्षण है। यहां किसी एक दृष्टि की प्रधानता नहीं है। एक आंतरिक शक्ति के विविधवर्णी प्रकटन को स्वाभाविक मानने की परंपरा वैदिक काल से ही प्रचलित है। एक से बहुल होना स्वीकार्य है, एक को कई कई ढंग से देखना भी सहज है और सभी दिशाओं से आ रहे विचार स्वागतयोग्य हैं। बहुल की भलाई ही सर्वोपरि है।

यह भी आश्चर्यजनक है कि गांवों में हमारी परंपरा किसी न किसी रूप में सुरक्षित है। गांव में ‘अतिथि देवो भवः’ की गूंज अब भी सुनी जा सकती है। देवी देवता और रीति रिवाज की सांस्कृतिक निरंतरता आज भी कायम है। उन ग्रामवासियों के लिए अपनी विरासत को जानना, पहचानना और अपनाना सहज और स्वाभाविक है क्योंकि वे उसे किसी न किसी रूप में जी रहे हैं। वे प्रकृति पर कब्जा करने की जगह परिस्थिति के साथ जीना जानते हैं। गर्मी, सर्दी, बरसात के मौसम के हिसाब से वे जीने की कोशिश करते हैं। वहां निरंतरता दिखती है और लगता है कि कुछ है जिसे ‘सनातन’ कहा जाता है। पर नगर और महानगर में रहने वाले भारतवासी जनों के लिए यह सब वर्तमान से कटा हुआ अजूबा, अर्थहीन या निष्प्रयोजन सी कवायद होता है क्योंकि वे स्वयं इसका ककहरा भी नहीं जानते। उनके लिए वह ज़्यादा से ज़्यादा कौतूहल की वस्तु है जो लोक-संस्कृति के अंश के रूप में घर सजाने या फिर संग्रहालय में रखे जाने योग्य होता है।

उल्लेखनीय है कि भारत की भौतिक समृद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान और कौशल की संपदा ने विदेशी राजसत्ताओं को सतत आकर्षित किया। शक, हूण, कुषाण, ग्रीक, मुस्लिम, फ़्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज आदि ने देश पर आक्रमण किया। लगभग हज़ार साल तक भारत बाहरी आक्रमण झेलता रहा। उनके आक्रमणों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिणाम हुए। सांस्कृतिक संपर्क और आवाजाही से कई तरह के परिवर्तन आए। पराजित मन के साथ अपनी संस्कृति को जीवित रखना मुश्किल होता है।

अंग्रेजी राज्य के प्रभाव ने बड़े निर्मम तरीके से न केवल यहां के आर्थिक संसाधनों का दोहन किया बल्कि घातक ढंग से भारतवासियों के मन में सांस्कृतिक अवमूल्यन का भाव भरा। इस हेतु अपने ही ज्ञान के प्रति वितृष्णा पैदा की, अंग्रेजी शिक्षा को रोप कर उससे दूरी बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया और उसे आधुनिक बनाने के लिए जरूरी और जायज ठहराया। इसका कुपरिणाम यह हुआ कि हम अपनी ही संस्कृति के प्रति उदासीन होते गए और सांस्कृतिक निरक्षरता बढ़ती गई। आज स्थिति यह है कि मूल संस्कृत पाठ को पढ़कर समझ सकने वाले बहुत कम हो गए हैं। गलतियों के बावजूद उनके अंग्रेज़ी अनुवाद ही प्रामाणिक माने जाते हैं और उन्हीं के माध्यम से लोग मूल तक पहुंच पाते हैं।

भारत की नई पीढ़ी यहां की देशज विश्व दृष्टि और ज्ञान-परंपरा को अछूत मानती जा रही है। यहां पर इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि हमने बिना जांचे भारत और उसके समाज को समझने को लेकर अंग्रेजी हुक्मरानों द्वारा किए गए षडयंत्र से उपजे ज्ञान के सांचे को आंख मूंदकर अपना लिया और उसी तरह अपनी सोच को भी ढाल लिया। स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध की परंपरा बिना किसी प्रश्न के ज्यादातर उसी अप्रासंगिक दृष्टि को ही लेकर आगे बढ़ती रही। परिणाम यह हुआ कि अनुकरण की प्रवृत्ति प्रमुख होती गई। प्राप्त ज्ञान मात्र पुस्तकीय ही बना रहा। उसकी प्रामाणिकता और पुष्टि भी वास्तविक परिवेश और पारिस्थितिकी के लिए उपयुक्तता के बदले तर्काश्रित ही बनी रही। शिक्षा ही आज समाज के मानस का निर्माण करती है। यदि औपचारिक शिक्षा पर गौर करें तो यही प्रतीत होता है कि सृजनात्मक दृष्टि से हमारे शैक्षिक प्रयास ज्यादा कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।

शिक्षा और संस्कृति
सूचना और संचार क्रांति के हस्तक्षेप से शैक्षिक परिस्थिति में नए बदलाव आ रहे हैं। यह मीडिया के साथ जुड़कर एक नए किस्म के शैक्षिक समाजीकरण को जन्म दे रहा है। इसके द्वारा सूचनाओं के व्यापक संसार के साथ हमारी निकटता बढ़ रही है। इस अवसर का सार्थक उपयोग करते हुए यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा में भारतीय संस्कृति और चिंतन की समृद्ध दृष्टि को भी जगह दी जाय। आखिर भारत भी इसका हकदार है कि उसे उसके ढंग से समझा जाए।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)

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