विदेशी मुद्रा विश्लेषण

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इस पैकेज में शामिल हैं:
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- एक्सचेंज में 30-दिन का उपयोग
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- प्रश्न और सामग्रियों का उत्तर देने और स्पष्ट करने के लिए 1200 सदस्य समूह चैट।
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- ऑनलाइन उपकरण और संसाधन उपलब्ध 24-7।
मंच:
फुल वॉल्यूम ट्रेनिंग कोर्स के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला प्लेटफॉर्म ड्रॉपबॉक्स होगा। ड्रॉपबॉक्स एक आसान उपयोग प्रणाली है जिसमें पाठ्यक्रम के छात्र जितनी बार चाहें उतनी बार शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं!
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‘रुपये को बचाने की कीमत’- हर हफ्ते $3.6 बिलियन गंवाए, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में एक दशक में सबसे बड़ी गिरावट दिखी
जनवरी के पहले सप्ताह में भारत के पास 633 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था, जिसमें अब तक 82 अरब डॉलर से अधिक की गिरावट के संकेत मिले हैं. विदेशी मुद्रा घटने का मतलब है कि आरबीआई रुपये की लगातार गिरावट पर काबू पाने के लिए डॉलर बेच रहा है.
प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली: फरवरी में रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के साप्ताहिक स्टेटिस्टिकल सप्लीमेंट के मुताबिक, 9 सितंबर तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 550.8 अरब डॉलर था. ये 2020 के बाद सबसे कम है, जब यह आंकड़ा 580 अरब डॉलर पर पहुंच गया था.
जनवरी के पहले सप्ताह में भारत के पास 633 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था, जिसका मतलब है कि इस कैलेंडर वर्ष में अब तक 82 अरब डॉलर से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है जो कि पिछले एक दशक में सबसे अधिक है.
ग्राफिक: रमनदीप कौर | दिप्रिंट
विदेशी मुद्रा भंडार पिछले सात माह में 82 अरब डॉलर घटा चुका है, और इसमें से लगभग आधा नुकसान पिछले तीन महीनों में हुआ. आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जून में 12.7 अरब डॉलर, जुलाई में 14.4 अरब डॉलर और अगस्त में 20 अरब डॉलर घटा. जून के पहले हफ्ते के बाद से भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 47 बिलियन डॉलर यानी करीब 3.6 अरब डॉलर प्रति सप्ताह की दर से गिरा.
2022 में इस दर पर कमी संभवतः 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट (जीएफसी) के बाद से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट हो सकती है. पिछले महीने अपने बुलेटिन में आरबीआई ने उल्लेख किया था कि जीएफसी के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 70 बिलियन डॉलर गिर गया था.
आरबीआई के अर्थशास्त्रियों ने अपने विश्लेषण में अनुमान लगाया था कि जुलाई अंत तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 56 अरब डॉलर घट गया था, साथ ही उल्लेख किया कि इसमें से 20 अरब डॉलर स्वैप सेल के कारण घटे थे—जिसका मतलब है कि यह मुद्रा आरबीआई के पास वापस लौट आनी थी. मौजूदा समय में अगर स्वैप सेल को हटा दिया जाए तो भी वास्तविक गिरावट 63 अरब डॉलर से कुछ अधिक हो सकती है.
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एक दशक में सबसे ज्यादा कमी
पिछले 10 सालों की तुलना में यह कमी भारत में अब तक की सबसे तेज गिरावट है. कैलेंडर वर्ष 2011 (0.6 अरब डॉलर), 2012 (1.7 अरब डॉलर), 2013 (1.8 अरब डॉलर) और 2018 (13.28 अरब डॉलर) भारत के विदेशी मुद्रा भंडार के घटने के गवाह हैं—लेकिन यह गिरावट उनके आकार की तुलना में मामूली थी.
बाकी सालों में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि दर्ज की गई है और इसमें से वर्ष 2020—जब सारी दुनिया कोविड-19 महामारी से प्रभावित रही—सबसे अधिक लाभकारी रहा. उस साल भारत की विदेशी मुद्रा संपत्ति में करीब 119 अरब डॉलर (2019 के अंत में 461 अरब डॉलर से बढ़कर 2020 के अंत तक 580 बिलियन डॉलर) की वृद्धि दर्ज की गई. 2021 विदेशी मुद्रा विश्लेषण के अंत तक, आंकड़ा 52 अरब डॉलर बढ़कर 633 अरब डॉलर पर पहुंच गया. पिछले साल 3 सितंबर को भारत ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को 642.45 अरब डॉलर के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर देखा था.
ग्राफिक: रमनदीप कौर | दिप्रिंट
ऐसा क्यों हुआ?
विदेशी मुद्रा में कमी का मतलब है कि आरबीआई रुपये के गिरते मूल्य पर काबू पाने के लिए डॉलर बेच रहा है, जो जुलाई में 80 विदेशी मुद्रा विश्लेषण रुपये प्रति डॉलर के सर्वकालिक निचले स्तर पर पहुंच गया था.
ऐसा होने का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि अमेरिका के केंद्रीय बैंक यूएस फेडरल रिजर्व ने रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंची मुद्रास्फीति पर लगाम कसने के लिए प्रमुख ब्याज दरों में वृद्धि कर दी है. इस साल, यूएस फेड ने अब तक चार मौकों पर कर्ज पर ब्याज की दर बढ़ाई है—यह अगस्त में 2.25-2.5 प्रतिशत रही, जो मार्च में 0.25-0.5 प्रतिशत थी.
ऋण दर में बढ़ोतरी करके यूएस फेड दरअसल मुद्रा के तौर पर डॉलर का उपयोग करने वाले लोगों की क्रय शक्ति सीमित करना चाहता है. और जैसा इकोनॉमिक टाइम्स का एक विश्लेषण बताता है, इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने पिछले एक साल में 39 अरब डॉलर से अधिक की निकासी की.
भारतीय रिजर्व बैंक के वित्तीय बाजार संचालन विभाग से जुड़े सौरभ नाथ, विक्रम राजपूत और गोपालकृष्णन एस. का एक अध्ययन से बताता है कि 2008 में आर्थिक संकट के दौरान भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 70 अरब डॉलर घट गया था. जब तक उनका शोध प्रकाशित (12 अगस्त) हुआ तब तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पहले ही 56 अरब डॉलर कम हो चुका था.
हालांकि, अध्ययन का सार यही था कि मुद्रा के तौर पर रुपये की कीमतों में उतार-चढ़ाव की संभावनाएं—पिछले आर्थिक झटकों की तुलना में—घटी ही हैं. मुद्रा अस्थिरता एक देश की मुद्रा के मूल्य में दूसरे देश की मुद्रा की तुलना में आने वाले बदलावों से जुड़ी है.
लेखकों ने कहा कि 2008 के आर्थिक संकट के दौरान भारत की विदेशी मुद्रा में गिरावट उसके कुल विदेशी मुद्रा भंडार के 22 प्रतिशत से अधिक थी, जो इस बार सिर्फ 6 प्रतिशत है. ऐसा सिर्फ इसलिए है कि देश में 14 साल पहले की तुलना में अब बहुत अधिक डॉलर (282 अरब डॉलर) हैं. अध्ययन में लिखा गया है, ‘रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार में धीर-धीरे कम प्रतिशत में गिरावट के साथ अपने दखल के उद्देश्यों को हासिल करने में सक्षम रहा है.’
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) में सलाहकार अर्थशास्त्री राधिका पांडे का भी मानना है कि अभी स्थिति बहुत खराब नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘अस्थिर वैश्विक पृष्ठभूमि को देखते हुए पूंजी प्रवाह इनफ्लो और आउटफ्लो के बीच झूलता रहेगा. फिलहाल तो रिजर्व में गिरावट चिंताजनक नहीं है. रिजर्व का अनुपात पर्याप्त मात्रा में बना हुआ है. हम विदेशी मुद्रा विश्लेषण 2014 के टेंपर टैंट्रम प्रकरण की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में हैं. लेकिन साथ ही अगर डॉलर मजबूत बना रहता है, तो आरबीआई को रुपये को अपनी गति से गिरने देना होगा.’
मुंबई स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर राजेश्वरी सेनगुप्ता ने संकेत दिया कि आरबीआई को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ सकता है.
उन्होंने कहा, ‘80 अरब डॉलर (विदेशी मुद्रा हानि) वो कीमत है जो आरबीआई को रुपये को गिरने से बचाने और इसे एक निश्चित सीमा स्तर पर बनाए रखने के लिए चुकानी पड़ रही है. लेकिन बढ़ते चालू खाते के घाटे को देखते हुए रुपये विदेशी मुद्रा विश्लेषण को फिलहाल उसके हाल पर छोड़ देने में ही ज्यादा समझदारी होगी. रुपये के अवमूल्यन से निर्यात बढ़ाने में तो मदद मिल सकती है लेकिन इसकी गिरावट रोकने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार गंवाना कोई स्थायी रणनीति नहीं हो सकती है.’
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जोखिम की चेतावनी: ट्रेडिंग जोखिम भरा है। आपकी पूंजी जोखिम में है। Exinity Limited FSC (मॉरीशस) द्वारा विनियमित है।
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खतरे में हैसियत: डॉलर के घटते वर्चस्व से अब गहराने लगी अमेरिका में चिंता
डॉलर के इसी वर्चस्व के कारण अमेरिका दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगा कर उनकी अर्थव्यवस्था को क्षतिग्रस्त करने में सक्षम बना रहता है। चूंकि ज्यादातर देश अपने धन का एक बड़ा हिस्सा डॉलर में रखते हैं, इसलिए अमेरिका जब चाहे उनके धन को जब्त करने की स्थिति में भी रहता है। अमेरिका की इस ताकत के कारण ही भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने डॉलर को ‘व्यापक विनाश का आर्थिक हथियार’ कहा है.
अब यह अमेरिका में भी महसूस किया जाने लगा है कि दुनिया की रिजर्व करेंसी के रूप में डॉलर की हैसियत खतरे में है। टीवी चैनल सीएनएन की वेबसाइट पर छपे एक विस्तृत विश्लेषण कहा गया है- ‘अमेरिका के पास दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना जरूर है, लेकिन उसका सबसे बड़ा हथियार डॉलर है। लेकिन विश्व मुद्रा भंडार के रूप में अमेरिका की हैसियत अब खतरे में दिख रही है।’
इस रिपोर्ट के मुताबिक इस समय दुनिया में कुल 12.8 ट्रिलियन डॉलर का फॉरेन रिजर्व करेंसी (विदेशी मुद्रा भंडार) है। इसका करीब 60 फीसदी हिस्सा डॉलर में रखा गया है। यह अमेरिका के लिए एक बड़ी सुविधा है। इससे अमेरिका को यह सुविधा मिलती है कि वह अपनी ही मुद्रा में दूसरे देशों से कर्ज ले सकता है। इसका मतलब यह भी है कि अगर डॉलर का मूल्य गिरता है, तो अमेरिका पर कर्ज का बोझ भी घट जाता है। इसके अलावा इस कारण अमेरिकी कारोबारियों को यह सुविधा मिली हुई है कि वे बिना कन्वर्जन फीस दिए अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करते हैं।
‘व्यापक विनाश का आर्थिक हथियार’
डॉलर के इसी वर्चस्व के कारण अमेरिका दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगा कर उनकी अर्थव्यवस्था को क्षतिग्रस्त करने में सक्षम बना रहता है। चूंकि ज्यादातर देश अपने धन का एक बड़ा हिस्सा डॉलर में रखते हैं, इसलिए अमेरिका जब चाहे उनके धन को जब्त करने की स्थिति में भी रहता है। हाल के वर्षों में उसने ऐसा वेनेजुएला, ईरान, अफगानिस्तान और अब रूस के साथ किया है। अमेरिका की इस ताकत के कारण ही भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने डॉलर को ‘व्यापक विनाश का आर्थिक हथियार’ कहा है।
लेकिन यही ताकत अब डॉलर के लिए खतरे की घंटी बन गई है। अमेरिकी रणनीतिकार मिकल हार्टनेट ने कहा है कि डॉलर को हथियार बनाने के कारण विश्व वित्तीय व्यवस्था विखंडित हो रही है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में अमेरिका की हैसियत क्षीण होती जा रही है। उधर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपने एक ताजा शोधपत्र में बताया है कि पिछले दो दशक में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडार में डॉलर का हिस्सा घटता चला गया है। ये वही अवधि है जब अमेरिका ने ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ छेड़ा और वह प्रतिबंधों का अधिक से अधिक सहारा लेने लगा। इसका नतीजा यह हुआ है कि अब बहुत देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की जगह चीन की मुद्रा युवान को ज्यादा जगह देने लगे हैं।
अमेरिका में महंगाई दर 40 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर
डॉलर के प्रति घट रहे आकर्षण का एक कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई कमजोरी को भी माना जा रहा है। अमेरिका सरकार विदेशी मुद्रा विश्लेषण विदेशी मुद्रा विश्लेषण पर कर्ज जीडीपी की मात्रा के लगभग 125 फीसदी के बराबर हो गया है। इसके अलावा इस समय अमेरिका में महंगाई दर 40 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है। इसका खराब असर आम अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
आईएमएफ के ताजा शोधपत्र को इस संस्था के अर्थशास्त्रियों सेरकान अर्सलानल्प एवं चीमा सिम्पसन बेल, और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया बर्कले के बैरी आइचेनग्रीन ने तैयार किया है। इसमें कहा गया है कि अब जो बातें कही जा रही हैं, वे इस बात का संकेत हैं कि आने वाले समय में किस तरह का अंतरराष्ट्रीय सिस्टम सामने आ सकता है। संकेत यह है कि डॉलर की कीमत पर युवान की अंतरराष्ट्रीय भूमिका बढ़ेगी।
विस्तार
अब यह अमेरिका में भी महसूस किया जाने लगा है कि दुनिया की रिजर्व करेंसी के रूप में डॉलर की हैसियत खतरे में है। टीवी चैनल सीएनएन की वेबसाइट पर छपे एक विस्तृत विश्लेषण विदेशी मुद्रा विश्लेषण कहा गया है- ‘अमेरिका के पास दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना जरूर है, लेकिन उसका सबसे बड़ा हथियार डॉलर है। लेकिन विश्व मुद्रा भंडार के रूप में अमेरिका की हैसियत अब खतरे में दिख रही है।’
इस रिपोर्ट के मुताबिक इस समय दुनिया में कुल 12.8 ट्रिलियन डॉलर का फॉरेन रिजर्व करेंसी (विदेशी मुद्रा भंडार) है। इसका करीब 60 फीसदी हिस्सा डॉलर में रखा गया है। यह अमेरिका के लिए एक बड़ी सुविधा है। इससे अमेरिका को यह सुविधा मिलती है कि वह अपनी ही मुद्रा में दूसरे देशों से कर्ज ले सकता है। इसका मतलब यह भी है कि अगर डॉलर का मूल्य गिरता है, तो अमेरिका पर कर्ज का बोझ भी घट जाता है। इसके अलावा इस कारण अमेरिकी कारोबारियों को यह सुविधा मिली हुई है कि वे बिना कन्वर्जन फीस दिए अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करते हैं।
‘व्यापक विनाश का आर्थिक हथियार’
डॉलर के इसी वर्चस्व के कारण अमेरिका दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगा कर उनकी अर्थव्यवस्था को क्षतिग्रस्त करने में सक्षम बना रहता है। चूंकि ज्यादातर देश अपने धन का एक बड़ा हिस्सा डॉलर में रखते हैं, इसलिए अमेरिका जब चाहे उनके धन को जब्त करने की स्थिति में भी रहता है। हाल के वर्षों में उसने ऐसा वेनेजुएला, ईरान, अफगानिस्तान और अब रूस के साथ किया है। अमेरिका की इस ताकत के कारण ही भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने डॉलर को ‘व्यापक विनाश का आर्थिक हथियार’ कहा है।
लेकिन यही ताकत अब डॉलर के लिए खतरे की घंटी बन गई है। अमेरिकी रणनीतिकार मिकल हार्टनेट ने कहा है कि डॉलर को हथियार बनाने के कारण विश्व वित्तीय व्यवस्था विखंडित हो रही है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में अमेरिका की हैसियत क्षीण होती जा रही है। उधर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपने एक ताजा शोधपत्र में बताया है कि पिछले दो दशक में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडार में डॉलर का हिस्सा घटता चला गया है। ये वही अवधि है जब अमेरिका ने ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ छेड़ा और वह प्रतिबंधों का अधिक से अधिक सहारा लेने लगा। इसका नतीजा यह हुआ है कि अब बहुत देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की जगह चीन की मुद्रा युवान को ज्यादा जगह देने लगे हैं।
अमेरिका में महंगाई दर 40 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर
डॉलर के प्रति घट रहे आकर्षण का एक कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई कमजोरी को भी माना जा रहा है। अमेरिका सरकार पर कर्ज जीडीपी की मात्रा के लगभग 125 फीसदी के बराबर हो गया है। इसके अलावा इस समय अमेरिका में महंगाई दर 40 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है। इसका खराब असर आम अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
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